Thursday, August 13, 2020

भारत में गरीबी व बेरोजगारी की समस्या (Poverty and Unemployment Problem in India)

 


            भारत में गरीबी की समस्या (Poverty and Unemployment Problem in India)

दरिद्रता एक ऐसी दीवार है जो इन्सान के बढ़ते कदम को थाम लेती है । व्यक्तित्व विकास एवं सर्वागीण विकास के लिये यह एक बाधक तत्व है । यह न केवल व्यक्ति के लिए अपितु सम्पूर्ण मानव समाज के लिए अभिशाप है ।

गरीबी एवं सर्वव्यापी समस्या है । विश्व के अनेक देश इसके चपेट से नहीं बच सके है । भारत में ग्रामीण विकास मंत्रालय पैनल की अध्यक्षता वाली एन. सी. सक्सेना समिति ने 50 प्रतिशत भारतीयों को गरीबी रेखा के नीचे बताया है ।

जो औसत दर्जे का जीवनयापन नहीं कर पाते हैं एवं उनके पास पर्याप्त भोजन एवं वस्त्रों का अभाव है । औद्योगिक क्रांति ने गरीबी और अमीरी में भीषण आर्थिक विषमता पैदा कर दी है । आज समूचा विश्व आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और विपन्न दो भागों में बट गया है ।

दरिद्रता और अमीरी तुलनात्मक शब्द हैं, साधारण भाषा में निर्धनता के विषय में प्रसिद्ध समाज शास्त्री, गिलिन एवं गिलिन का कथन है कि- निर्धनता वह दशा है जिसमें एक व्यक्ति या तो अपर्याप्त आय अथवा मूर्खतापूर्ण व्यय के कारण अपने जीवन स्तर को इतना ऊँचा नहीं कर पाता है कि उसकी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता बनी रह सके ।

उसको तथा उसके आश्रितों को अपने समाज से स्तरों के अनुसार उपयोगी ढंग से कार्य करने के योग्य बनाए रख सके ।इसी प्रकार का कथन वीवर और गोडार्ड ने भी कहा है । गरीबी का निर्धारण ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार से किया जा सकता है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में वे व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे आंके गये हैं, जो 1993-94 के मूल्य स्तर 229 रूपये प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय नहीं कर सकता और शहरी क्षेत्र में 264 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति माह उपभोक्ता व्यय नहीं कर सकता है । गाँवों में पाँच व्यक्तियों की सदस्यता वाला परिवार गरीब है ।

जो 11060 रूपये प्रतिवर्ष खर्च नहीं कर सकता और नगरों में 11850 रूपये उपभोक्ता प्रतिवर्ष खर्च नहीं कर सकता फरवरी 1997 में सरकार ने जो विवरण संसद में प्रस्तुत किया उसके अनुसार अधिकतम 15000 रूपये वार्षिक कमाने वाले व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत करने वाले माने जायेंगे ।

गरीबी निर्धारण का एवं आधार यह भी है कि एक व्यक्ति को प्रतिदिन गाँवों में 2400 केलोरी ऊर्जा प्रदान करने वाला एवं नगरों में 2100 केलोरी ऊर्जा प्रदान करने वाला भोजन मिलना चाहिए । उतनी केलोरी ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए हमें जितना उपभोग खर्च प्रति माह करना चाहिए यदि हम उतना खर्च नहीं कर पाते हैं तो हम गरीब हैं ।

स्पष्ट है कि निर्धनता एक ऐसी स्थिति है जिसमें एक व्यक्ति तथा अपने आश्रितों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता है । यह एक सापेक्ष शब्द है । इसका अर्थ यह है कि एक देश में जिसे हम निर्धन कहते हैं दूसरे देश में वह धनवान हो सकता है । अमेरिका में गरीब व्यक्ति वह है जो प्रतिवर्ष अपनी कार नहीं बदल सकता और नवीन वैज्ञानिक उपकरणों एवं संसाधनों का अभाव है, जबकि ऐसा व्यक्ति भारत में धनवान की श्रेणी में आता है ।

निर्धनता के निर्धारण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य आय का स्त्रोत है । कम आय वाले लोगों को ही गरीब कहा जा सकता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में आवश्यकताओं की पूर्ति एवं बचत संभव नहीं होती है । आय ही जीवन स्तर को तय करने में मुख्य कारक है ।

आय का संबंध परिवार में सदस्यों की संख्या और कमाने वालों की संख्या से भी है । जब कमाने वाले कम और उन पर निर्भर व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है तो कम आय निर्धनता और दरिद्रता को जन्म देती है ।

 भारत में गरीबी की समस्या के कारण (Causes for Poverty Problem in India):

गरीबी का जन्म किसी एक कारण या घटना के फलस्वरूप नहीं होता है ।

यह अनेक कारणों की पारस्परिक क्रियाओं का प्रतिफल है, जिसमें से सामाजिक, आर्थिक अन्य कारण उत्तरदायी हैं:

(i) कृषि की पिछड़ी अवस्था (ii) जमींदारी प्रथा (iii) प्राकृतिक प्रकोप (iv) प्राकृतिक संसाधनों का अपूर्ण दोहन (v) साहूकारी प्रथा (vi) बेकारी (vii) औद्योगीकरण और पूंजीवाद (viii) पूंजी का अभाव (ix) अकुशल श्रमिक (x) यातायात एवं संचार के साधनों का अभाव (xi) संयुक्त परिवार व्यवस्था का विघटन (xii) जाति प्रथा (xiii) अज्ञानता और अशिक्षा (xiv) सामाजिक कुप्रथाएं (xv) गंदी बस्तियां (xvi) निम्न स्वास्थ्य स्तर (xvii) जनसंख्या की वृद्धि (xviii) बीमार, (xix) आलस्य एवं निष्क्रियता (xx) सुधार नीतियों की असफलता ।

गरीबी का भारतीय समाज पर दुष्प्रभाव:

(i) भुखमरी और कुपोषण (ii) जनसंख्या का घनत्व (iii) अशिक्षा (iv) बेरोजगारी एवं बेकारी (v) शारीरिक और मानसिक प्रभाव (vi) सामाजिक प्रभाव (vii) अपराधों में वृद्धि (viii) पारिवारिक विघटन (ix) भिक्षावृत्ति (x) दुर्व्यसनों में वृद्धि आदि अनेक जिम्मेदार कारक हैं ।

गरीबी की समस्या समाप्त करने के लिए कुछ उपाय अथवा सुझाव (Remedial Measures and Suggestion Taken to Reduce Poverty Problem):

भारत सरकार ने निर्धनता को समाप्त करने के लिए विशेष प्रयत्न किए हैं जिसमें से प्रमुख निम्नांकित हैं:

(1) पंचवर्षीय योजनाऐं (2) स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना (3) प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना (4) इंदिरा आवास योजना (5) स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना (6) आम आदमी बीमा योजना (7) राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना (8) खेतीहर मजदूर रोजगार गारन्टी कार्यक्रम (9) जवाहर रोजगार योजना (10) संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (11) अन्नपूर्णा योजना (12) अन्त्योदय अन्न योजना (13) वृहद उद्योगों का विकास (14) कुटीर उद्योगों का विकास(15) बाजारों का विस्तार  (16) प्रशासनिक कुशलता (17) भारत निर्माण योजना (18) मनरेगा ।

अन्य उपाय:

(i) प्राकृतिक विपदाओं जैसे बाढ़, भूकंप, अनावृष्टि तथा कीड़े-मकोड़ों के प्रकोप आदि से रक्षा की उचित व्यवस्था करना ।

(ii) मद्य निषेध को प्रभावी ढंग से लागू करना । (iii) गंदी बस्तियों के स्थान पर नियोजित बस्तियों का निर्माण करना । (iv) स्वास्थ्य संरक्षण की उचित व्यवस्था करना । (v) देश में प्राकृतिक साधनों का पूर्ण विदोहन करना । (vi) देश में यातायात के साधनों को अधिकाधिक विकसित करना । (vii) सट्टे एवं जुए पर रोक लगाना । (viii) बचत की आदत को प्रोत्साहन करना ।

देश में व्याप्त भयंकर निर्धनता अनेक प्रयासों के बावजूद भी समाप्त नहीं हुई है, उसे समाप्त करने के लिए कुछ सुझाव निम्नांकित हैं:

(1) बेकारी एवं गरीबी का सहसंबंध है, ग्रामीण लोग वर्ष में 5-6 माह बेकार बैठे रहते हैं । अतः ग्रामीण बेरोजगारों को प्रोत्साहित एवं रोजगार उपलब्ध कराने के लिए कुटीर एवं लघु उद्योगों की व्यवस्था की जा सकती है ।

(2) तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या हमारे आर्थिक विकास को शिथिल कर देती है । अतः भारतीय संस्कृति एवं समाज के अनुरूप परिवार नियोजन की विधियों का प्रयोग करते हुए बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित किया जाऐ ।

(3) कृषि में परम्परागत तरीकों के स्थान पर नवीन तरीकों उन्नत बीज खाद सिचाई के नवीन साधनों का उपयोग किया जाना चाहिए ।

(4) भारत में आर्थिक विकास की गति धीमी रही है, इसके लिए हमें अधिक से अधिक औद्योगीकरण एवं ग्रामीण उद्योगों को विकास के लिए बढ़ावा दिया जाना चाहिए ।

(5) केवल उत्पादन बढ़ाने से ही निर्धनता की समस्या का हल नहीं होगा जब तक कि उत्पादन के साधनों और लाभों का समाज के सभी लोगों में उचित वितरण न किया जाय ।

 (6) सामाजिक कुप्रथाओं छूआछूत, दहेज, मृत्युभोज एवं ऐसी ही अन्य सामाजिक कुरीतियों की समाप्ति के लिए कठोर कानून बनाए जाऐ । दंड की व्यवस्था की जाए एवं जन जागरण का कार्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए ।

(7) औद्योगीकरण एवं शिक्षा का प्रसार किया जाना चाहिए जिससे एक तरफ रोजगार के अवसर बढ़ेंगे तो दूसरी तरफ अज्ञानता रूढ़ियां एवं सामाजिक कुरीतियों से छुटकारा मिलेगा । लोगों की कार्यक्षमता में वृद्धि होगी । शिक्षा को व्यवसाय तथा आर्थिक विकास से जोड़ा जाना चाहिए ।

 (8) बचत की आदत को प्रोत्साहन किया जाना चाहिए इससे पूँजी की वृद्धि होगी और पूँजी को उत्पादन के कार्यों में लगाया जा सकेगा, जिससे प्रतिव्यक्ति एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी ।

इस समस्या को हल करने के लिए सरकार ने योजनाबद्ध प्रयास किए हैं । फिर भी यह आज गंभीर रूप से मौजूद हैं ।

नगरों में गंदी बस्तियों की समस्याओं का समाधान व मकान बनाने की योजना बनाई गई है । बँधुआ मजदूरी प्रथा समाप्त करने के लिए 1976 में अधिनियम बनाया गया तथा लोगों को शिक्षा, शुद्ध पेयजल, चिकित्सालय आदि उपलब्ध कराने के लिए योजनाओं में विशेष धन राशि रखी गई है ।

निर्धनता अनुपात में उडीसा राज्य देश में 46.4 प्रतिशत के साथ प्रथम स्थान पर है । दूसरा स्थान बिहार 41.4 प्रतिशत तथा तीसरा स्थान छत्तीसगढ़ 40.9 प्रतिशत का है । इसके बाद झारखंड व मध्य प्रदेश आते हैं । जम्मू कश्मीर में सबसे कम निर्धनता है । जहां मात्र 5.4 प्रतिशत जनसंख्या ही गरीबी रेखा से नीचे हैं । 

भारत में बेरोजगारी : समस्या एवं समाधान Unemployment in India

आज बेरोजगारी की समस्या विकसित एवं अल्पविकसित दोनों प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं की प्रमुख समस्या बनती जा रही है । भारत जैसी अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में तो यह विस्फोटक रूप धारण किये हुये है । भारत में इसका प्रमुख कारण जनसंख्या वृद्धि, पूँजी की कमी आदि है । यह समस्या आधुनिक समय में युवावर्ग के लिये घोर निराशा का कारण बनी हुई है ।

अर्थव्यवस्था विकसित हे। या अल्पविकसित, बेरोजगारी का होना सामान्य बात है । साधारण बोलचाल में बेरोजगारी का अर्थ होता है कि वे सभी व्यक्ति जो उत्पादक कार्यो में लगे हुये नहीं होते । भारत में बेरोजगारी एक गम्भीर समस्या है ।

भारत में दो प्रकार की बेरोजगारी है प्रथम, ग्रामीण बेरोजगारी, द्वितीय, शहरी बेरोजगारी । बेरोजगारी के अनेक कारण हैं जैसे जनसंख्या वृद्धि, पूंजी की कमी, विकास की धीमी गति, अनुपयुक्त तकनीकों का प्रयोग, अनुपयुक्त शिक्षा प्रणाली आदि ।

यद्यपि शहरी एवं ग्रामीण बेरोजगारी का समाधान करने के लिये समन्वित रूप से सरकार द्वारा अनेक कारगर उपाय किये गये हैं तथापि इस समस्या से तभी उबरा जा सकता है जबकि जनसंख्या को नियन्त्रित किया जाये और देश के आर्थिक विकास की ओर ढांचागत योजनायें लागू की जाएं । इस ओर सरकार गम्भीर रूप से प्रयास भी कर रही है ।

बेरोजगारी एक विश्वव्यापी समस्या है । बेरोजगारी भारत में आधुनिक समय में एक सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर रही है । बेरोजगारी का तात्पर्य उस अवस्था से होता है जब कार्य करने योग्य व्यक्ति जोकि कार्य करने हेतु तत्पर हैं किन्तु उन्हें कोई रोजगार नहीं मिल पाता जिनसे उन्हें नियमित आय प्राप्त हो ।

अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में यह समस्या जनसंख्या वृद्धि, पूंजी की कमी, उत्पादक व्यवसायों की कमी, आगतों की कमी, शिक्षा की कमी इत्यादि के कारण उत्पन्न होती है । भारत में तो वैसे ही जनसंख्या वृद्धि भंयकर रूप धारण किये हुये है जोकि बेरोजगारी का एक मूल कारण है क्योंकि सरकार अभी विभिन्न व्यवसायों की योजना रोजगार वृद्धि हेतु बना ही पाती कि तुलना में जनसंख्या बढ़ जाती है ।

आज बड़ी समस्या पढ़े-लिखे बेरोजगारों की है । एक अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में विद्यमान तकनीकी ज्ञान की तुलना में सदैव साधनों में अल्प-रोजग्रार की अवस्था बनी रहती है । यह अल्परोजगार विद्यमान साधनों के दोषपूर्ण संयोग से उत्पन्न नहीं होता, अपितु पूंजी की कमी के कारण उत्पन्न होता है ।

अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी के निम्न रूप होते हैं:

1. खुली बेरोजगारी:

इस प्रकार की बेरोजगारी में श्रमिकों को कार्य करने के लिए अवसर प्राप्त नहीं होते जिनसे उन्हे नियमित आय प्राप्त हो सके । इस बेरोजगारी का मुख्य कार पूरक साधनों और पूंजी का अभाव है ।

यहाँ जनसंख्या वृद्धि की तुलना में पूंजी निर्माण की ग्। भी बहुत धीमी होती है । इसलिए, पूंजी-निर्माण की तुलना में श्रम-शक्ति अधिक तीव्रता से बद है । इसे संरचनात्मक बेरोजगारीभी कहते हैं

2. अल्प रोजगारी:

अल्पविकसित अर्थव्यवस्था मे अल्प-रोजगारी को दो प्रकार से परिभाषा कर सकते हैं: प्रथम अवस्था वह है जिसमें एक व्यक्ति को उसकी योग्यतानुसार रोजगार मिल पाता । द्वितीय अवस्था वह है जिसमें एक श्रमिक को सम्पूर्ण दिन या कार्य से सम्पूर्ण स के अनुसार पर्याप्त कार्य नहीं मिलता । अत: श्रमिकों को पूर्णकालिक रोजगार नहीं मिल पा अर्थात् वर्ष में कुछ दिनों या किसी विशेष मौसम में ही कार्य मिल पाता है । इसी कारण इसे मीर बेरोजगारीभी कहते हैं ।

3. प्रच्छन्न बेरोजगारी:

यह वह अवस्था है जिसमें मन्दी काल में व्यक्तियों को अधिक उत्पा कार्यो से कम उत्पादक कार्यो में धकेल दिया जाता है । प्रच्छन्न बेरोजगारी वास्तव में एक हुई बेरोजगारी होती है । कई श्रमिक जोकि रोजगार में संलग्न होते हैं, वास्तव में उत्पादन किसी भी तरह का योगदान नहीं देते हैं ।

भारत में बेरोजगारी का रूप विकसित देशों की तरह नहीं है । विकसित देशों में तो बेरीज का कारण वस्तुओं की प्रभावपूर्ण मांग में कमी है । जबकि भारत में यह समस्या मूलत: रु और अन्य संसाधनों की कमी का परिणाम है ।

वास्तव में बेरोजगारी उस अवस्था की ओर इंगित करती है जिसमें व्यक्ति काम करने हेतु उपलय है, वह काम करना भी चाहता , परन्तु नहीं मिल पा रहा । भारत में अल्परोजगारी की समस्या काफी गंभीर है क्योंकि कम आय घरों के लोग बेरोजगार नहीं रह पाते ।

अत: ऐसी स्थिति में वे कोई भी काम करने को रहते हैं, भले ही उससे उन्हें कितनी ही कम मजदूरी क्यों न मिले । आज भारतीय युवा वा सबसे बड़ी त्रासदी बेरोजगारी है । भारत में बेरोजगारी की समस्या को समझने हेतु इसे दो में वर्गीकृत किया जाता है:

1. ग्रामीण बेरोजगारी                                                              2. शहरी बेरोजगारी ।

1. ग्रामीण बेरोजगारी:

ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या बढ़ने से भूमि पर जनसंख्या का भा जाता है । भूमि पर जनसंख्या की मात्रा बढ़ने से कृषकों की संख्या भी बद जाती है । जिसके प्रच्छन्न बेरोजगारी की मात्रा बढ जाती है । अधिकांश श्रम-शक्ति प्राथमिक व्यवसायों में पं रहती है तथा व्यावसायिक ढाँचे के बेलोच होने के कारण गैर-व्यस्त मौसम में मी यह श्रमिक बाहर नहीं जाते । इसी कारण मौसमी बेरोजगारी पैदा होती है ।

मौसमी बेरोजगारी की मानव शक्ति के अल्प-प्रयोग से सम्बंधित है । यदि किसी विशेष मौसम में बेरोजगार श्रमित सहायक व्यवसायों में कार्य मिल भी जाता है, तो भी वह बेरोजगार बने ही रहते हैं । स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्रो में मौसमी बेरोजगारी एवं प्रच्छन्न बेरोजगारी दोनों ही विद्यमान होती है ।

2. शहरी बेरोजगारी:

शहरी बेरोजगारी ग्रामीण बेरोजगारी की ही प्रशाखा है । कृषि में पुंजीवादी प्रणाली के विकास के कारण तथा भूमि पर जनसंख्या के भार में वृद्धि के कारण कृषक की आर्थिक दशा प्रतिदिन बिगड़ती जाती है, जिसके कारण भारी संख्या में श्रमिक ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर स्थानान्तरित होने लगते हैं ।

गाँवों से शहरी की ओर जनसंख्या की यह गतिशीलता शहरी आकर्षण के परिणामस्वरूप नहीं अपितु गाँवो मे पर्याप्त रोजगार के अवसर उपलब्ध न के कारण होती है । ग्रामीण जनसंख्या के इस स्थानान्तरण से शहरों में श्रम-शक्ति की मात्रा वृद्धि हो जाती है ।

अत: बेरोजगारी की मात्रा में अधिक वृद्धि हो जाती है । भारत में शहरी बेरोजगा का मुख्य कारण यह ]इग है यहाँ अशिक्षितों की अपेक्षा शिक्षित बेरोजगारों की संख्या अधिक हो है । अत: जितनी संख्या में लोग शिक्षा प्राप्त करते हैं उतनी मात्रा में सेवा-क्षेत्र का विरू नहीं हो पाता । इसलिये मध्यम वर्ग में शिक्षित बेरोजगारो की समस्या गम्भीर रूप धारण कर जा रही है ।

स्पष्ट है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में मुख्यत-अल्प-रोजगार, मौसमी बेरोजग तथा प्रच्छन्न बेरोजगारी विद्यमान होती है, जबकि शहरी क्षेत्रों में खुली बेरोजगारी एवं शिाक्षा बेरोजगारी होती है । बेरोजगारी की अवस्था उस समय उत्पन्न होती है जब उपलब्ध रोजगार के अवसरों की में श्रम-शक्ति के विकास की दर अधिक होती है ।

विकास की दर जनसंख्या वृद्धि की दर भी निर्भर करती है । जब हम यह कहते हैं कि देश में बेरोजगारी बढ़ रही है तो इसका अर्थ है कि नये रोजगार के अवसरों का विकास पर्याप्त मात्रा में नहीं हो रहा । इसलिए श्रम-शक्ति लाभदायक रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं हो पाते ।

भारत में बेरोजगारी के कारण -

1. जनसंख्या वृद्धि की ऊँची दर बेरोजगारी की समस्या को जन्म देती है । इस दृष्टि से भारत की भूमि पर जनसंख्या का भार पहले से ही बहुत अधिक है । ऐसी स्थिति में नये रो के अवसर उपलब्ध कराने का दायित्व सहायक एवं सेवा क्षेत्र पर होता है । यदि उद्योग क्षेत्र एवं सेवा क्षेत्र अपने दायित्व को पूर्ण करने में असमर्थ होते हैं तो जनसंख्या वृद्धि की तुलना में तो बेरी में वृद्धि होती है अथवा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रच्छन्न बेरोजगारी उत्पन्न होती है ।

2. दूसरी बेरोजगारी की समस्या है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि क्षेत्र का विकास उप धीमा एवं निस्तेज रहा है । यह क्षेत्र विकासशील अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं को पूए में असमर्थ रहा है । इसका कारण कृषि क्षेत्र की उत्पादकता का स्तर कम होना है । कम उत्पादकता हेतु अन्य कारकों के अतिरिक्त एवं तकनीकी कारक बहुत सीमा तक जिम्मेदार हैं । भूमि सुधारों की प्रगति धीमी रही है, क में असुरक्षा बनी हुई हे, कृषक एवं भूस्वामी के मध्य सौहार्द नहीं है । इसके अतिरिक्त में भ्रष्ट बीजों, उर्वरकों, सिंचाई की सुविधाओं, कृषि-यन्त्रों आदि की बहुत कमी है

3. भारत में दोषपूर्ण आर्थिक नियोजन भी रोजगार के अवसरों में कमी का एक प्रमु बना ध्या है । भारत मे अभी तक आर्थिक विकास हेतु आधारभूत ढाँचे का विकास नहीं है । विभिन्न योजनाओं में ग्रामीण क्षेत्रों का समुचित ढंग से विकास नहीं हो सकता है, ग्रामीण जनसंख्या के स्थानान्तरण को नहीं रोका जा सका है । गावों में सेवा क्षेत्रो नहीं हो सका है ।

योजनाकाल में कृषि एवं उद्योगों मे तकनीकी विकास नहीं हो सका है जिससे कि उत्पादन में श्रम-शक्ति का अधिक उपयोग किया जा सके । योजनाओ में बेकार पडी हुई भूमि में उपयोग, सिचाई के साधनो का समुचित विकास, भूमि संरक्षण तथा कृषि में सहायब जैसे डेयरी, मछली पालन, मुर्गी पालन आदि का पर्याप्त विकास नहीं हो सका है जिसके कारण, शिक्षित, अशिक्षित एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों हेतु नये रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं हो सके हैं ।

इसके अतिरिक्त योजनाओ में बाढ़ नियन्त्रण, नदी-नालों पर बांध, ग्रामीण विद्युतीकरण, सड़क मार्गो का निर्माण आदि का भी समुचित विकास न होने के कारण भी कुशल एवं अकुशल श्रमिकों हेतु पर्याप्त रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं हो सके हैं ।

उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त अन्य कारण भी हैं जो बेरोजगारी की समस्या को उत्पन्न करते हैं जैसे शिक्षा के स्तर में निरन्तर वृद्धि होने के कारण स्कूल, कॉलेज अधिक मात्रा में खुलते जा रहे हैं । परिणामस्वरूप शिक्षा प्राप्त कर युवक रोजगार की प्रतीक्षा कर रहे हैं । यहाँ व्यावसायिक शिक्षा, तकनीकी शिक्षा प्रणाली का अभाव है, अपितु इस ओर आधुनिक शिक्षा प्रणाली में पर्याप जोर दिया जा रहा है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में लघु उद्योगों का विकास भी नहीं हो रहा है । पंचवर्षीर योजनाओं में भी बेरोजगारी को दूर करने के लिये पर्याप्त मात्रा में प्रावधान किये जाते हैं, अनेक् योजनाएं बनाई जाती है किन्तु उनमें कोई न कोई दोष विद्यमान होता है ।

देश में प्राकृतिक साधन एवं मानव शक्ति का सम्यक् नियोजन न कर पाना भी बेरोजगारी को जन्म देता है । बेरोजगारी की समस्या के अनेक पहलू हैं । इस समस्या के निराकरण हेतु हमें विविध उपाय को अपनाना होगा जिससे कि ग्रामीण एवं शहरी बेरोजगारी को दूर किया जा सके ।

शहरों में बेरोजगारी को दूर करने के लिये सर्वप्रथम हमें शिक्षा प्रणाली में सुधार करना होगा इसके लिये आवश्यक यह है कि विद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा को अपनार जाए ताकि शिक्षा प्राप्त कर यह व्यवसाय उम्मुख हो तथा स्नातकोत्तर स्तर पर या शोध पर केवर मेधावी विद्यार्थियों को ही प्रवेश दिया जाए ।

श्रम-प्रधान विधियों को प्रोत्साहित करने हेतु विभेदात्मक ब्याज दर नीति का भी प्रयोग किया जा सकता हे । वर्तमान नीति में परिवर्तन करके सुनियोजि ढंग से ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि कम पूँजी-गहन विधियों का शीघ्र ही विकास हो सके इसके अतिरिक्त सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के उद्योगों में पूंजी का निवेश करते समय दीर्घ गर्मका नहीं रखना चाहिए जब तक कि यह किन्हीं तकनीकी अपेक्षाओं के कारण उपलब्ध न हो ।

ऐसे उद्योगों में निवेश को प्रोत्साहित करना चाहिये जिनमें शीघ्र ही पूंजी का प्रतिफल प्राप्त होने त् सम्भावना हो । बढे शहरों में बेरोजगारी के केन्द्रीयकरण को रोकने हेतु औद्योगिक क्रियाओं विचलन एवं विकेन्द्रीकरण किया जाना चाहिए ।

राष्ट्रीयकृत बैंकों को छोटे उद्योगों एवं स्व-रोजग युक्त इंजीनियरों द्वारा आरम्भ किये गए उद्योगों को विकसित करने के लिये पर्याप्त मात्रा में सा सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए ।

योज का लाभ उन युवकों को प्राप्त है जिनकी समस्त स्रोतों से वार्षिक पारिवारिक आय 10,000 रुप्ये से अधिक नहीं है । शहरों में रहने वाले कमजोर वर्ग के लोगों के लिये स्व-रोजगार की योज आरम्म की जानी चाहिए । इस योजना के अन्तर्गत शहरी गृहस्थ जिसकी मासिक आय 600 रूपय से कम है, राष्ट्रीयकृत वाणिज्य बैंकों द्वारा अधिकतम 5,000 रुपये का रियायती ब्याज : दर पर प्रदान किया जायेगा । इस ण की सहायता से शहरी गरीब लोग कोई निजी व्यवसाय आरम्भ कर सकते हैं ।

सरकार द्वारा रोजगार के अवसरों में वृद्धि करने के लिए इस दृष्टि अनेक योजनाएं जैसे नेहरू रोजगार योजना रोजगार गारन्टी कार्यक्रम आदि क्रियान्वित गये हैं । शिक्षित बेरोजगारों के लिऐ नया कार्यक्रम बनाया गया है, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र; बाहर चार मिलियन अतिरिक्त रोजगार के अवसर उत्पन्न करने का प्रावधान है ।

हाल ही में सरक ने राज्यों एवं केन्द्र-शासित प्रदेशों में देश के युवाओं की सहायतार्थ एक व्यापक व्यवसाय प्रशिक्ष परियोजनाआरम्भ करने का संकल्प किया है । ग्रामीण बेरोजगारी को दूर करने के लिए आवश्यक है कि ग्रामीण विकास तथा कृषि गैर कृषि उत्पादन में विज्ञान एवं तकनीकी का अधिकाधिक प्रयोग किया जाए ।

साथ ही ग्रामी क्षेत्रों में निर्माण, विधायन तथा सामाजिक सेवाओं का विकास करके आर्थिक क्रियाओं में विविध उत्पन्न करनी होगी । स्थानीय पूँजी विनिर्माण परियोजनाओं, विशेष रूप से ऐसी परियोजनाएँ जिन द्वारा उत्पादन में शीघ्र वृद्धि हो सके, जैसे कि लघु एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाएँ, नालियों निर्माण, संग्रह सुविधाओं का विकास, स्थानीय यातायात व सड़कों का विकास आदि ।

अन्य उत्पाद क्रियाओं जैसे बागान, मल्ल व्यवसाय आदि का विकास । भूमि विकास एवं व्यवस्थापन, खेतों; श्रम-प्रधान विधियों का अधिक प्रयोग, पशुधन का विस्तार, कृषि उत्पादन के अनेक रूप, ग्रमि सामाजिक सेवाओं जैसे कि शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य सेवाएँ आदि का विकास तथा लघु-स्तर्र उद्योगों, दस्तकारियों, कृषिजन्य उद्योगों एवं विधायन उद्योगों का विकास आदि ।

ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की समस्या के समाधान हेतु सरकार ने भी अनेक उपाय विद है जैसे-भूमिहीन श्रमिकों तथा सीमान्त किसानों को कृषि कार्यो तथा सम्बद्ध व्यवसायों के रियायती दरों पर ण की व्यवस्था की है । कृषि उत्पादिता को बढाने के लिए नयी तकनी के प्रयोग हेतु लघु किसानों को ऋण दिया जाता है ।

स्थानीय कच्चे माल एवं श्रम का पूर्ण उठाने के लिये सरकार ने कुटीर एवं ग्रामीण उद्योगों के विकास को काफी महत्व दिया है । वृक्ष से सम्बद्ध व्यवसायों का विकास किया गया है जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रो के श्रमिकों को पय मात्रा में रोजगार के अवसर उपलब्ध हुये हैं ।

इनके अतिरिक्त समन्वित ग्रामीण विकास कार्या लागू किये गये हैं, जिसके अन्तर्गत पशु-पालन, रेशम के कीडे पालने, हस्तशिल्प, हथकरघा का विकास किया गया है । ग्रामीण कार्य योजनाएँ आरम्भ की गई हैं, जिसमें सड़क निर्माण, बाँध व पुल बनाना, लघु सिंचाई परियोजनाएँ, गोदामों का निर्माण, आवास गृहों का निर्माण आदि सम्मिलित किया गया है ।

समन्वित शुष्क भूमि कृषि विकास योजना को लागू किया गया है, कार्य बहुत ही श्रम-गहन होते हैं, जिनसे बड़ी मात्रा में रोजगार की सुविधाएं उपलब्ध होती राष्ट्रीय निर्माण रोजगार कार्यक्रम अक्टूबर, 1980 में आरम्भ किया गया ।

इसके अन्तर्गत ग्राम क्षेत्रों में प्रतिवर्ष 300-400 मिलियन श्रम-दिवसों के बराबर रोजगार के अवसरों का निर्माण क् की व्यवस्था है । इसके अतिरिक्त ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारन्टी कार्यक्रम 15 अगस्त, 1983 में लागू किया गया, जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में गारन्टी प्रदान करना है ।

इस कार्यक्रम अन्तर्गत भूमिहीन परिवार के कम-से-कम एक सदस्य को वर्ष में न्यूनतम 100 दिन रोजगार करने की व्यवस्था की गई है । ग्रामीण क्षेत्रो में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर उपलब्ध क के उद्देश्य से सरकार ने 28 अप्रैल, 1989 को जवाहर रोजगार योजना की घोषणा की ।

जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दूर करने हेतु लाभपूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध कर ग्रामीण जीवन में गुणात्मक सुधार के लिये प्रयास करना है । इनके अतिरिक्त सरकार ने 2 अक्टूबर, 1993 में रोजगार आश्वासन योजना एवं प्रधानमंत्री रोजगार योजना को लागू किया ।

उपरोक्त उपायों के अतिरिक्त शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की नई सुविधायें करने हेतु राष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक कार्यक्रमो का विकास किया जा सकरा है । इसके सम्पूर्ण देश में यातायात व संचार सेवाओ का विकास करना होगा ताकि राष्ट्रीय बाजार क अधिक व्यापक हो सके, वस्तुओं व व्यक्तियों की गतिशीलता में वृद्धि हो सके ।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि उपरोक्त सभी उपाय उस समय तक विफल रहेंगे जब तक कि हम नये रोजगार प्राप्त करने वाली श्रम-शक्ति मात्रा को नियन्त्रित नहीं करते और इसके लिए अति आवश्यक है कि जनसख्या वृद्धि को नियन्त्रित किया जाये ।

जब तक जनसंख्या वृद्धी नियंत्रित नहीं किया जा सकता तब तक कोई भी नीति बेरोजगारी को दूर करने में सफर नहीं हो सकती । अत: हम सभी को जनसंख्या विस्फोट की बढती हुई बाद को रोकने पुस्तकालय,केन्द्रीय विद्यालय क्रं02,मथुराहेतु सेतु बनाना अति आवश्यक है ।

पुस्तकालय,केन्द्रीय विद्यालय क्रं02,मथुरा

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